कहानी संग्रह >> मेरी नाप के कपड़े मेरी नाप के कपड़ेकविता
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कविता की कहानियों को पढ़ना एक युवा-स्त्री के मानसिक भूगोल के अनुसंधान
और घनिष्ठ अपरिचित को जानने के रोमांच से गुजरना है। वे लगभग ऐसी निजी
डायरियों की अन्तरंगताओं में लिखी गयी हैं जहाँ समाज और संसार को अपनी
तुनी हुई खिड़की से बैठकर संसार को अपनी चुनी हुई खिड़की से बैठकर देखा जा
सकता है। वे बाहर से अधिक अन्तर्जगत की कहानियाँ हैं। मगर वे आत्मालाप
नहीं हैं। वे उस ‘द्रष्टा’ की कहानियाँ हैं जो दूर
खड़े होकर
‘भोक्ता’ को देखता है, मगर दोनों किस सहजता से
अपनी-अपनी
भूमिकाएँ बदल लेतें हैं, यही नाटकीयता एक रोचक कहानी के रूप में हमारे
सामने आती है....
कविता की अपनी एक अलग दुनिया है और वह बहुत कम उससे बाहर जाती है (सिर्फ वापस लौट आने के लिए), मगर इस दुनिया के पात्रों को वह भरपूर शिद्दत से जी रही होती है- पुरुष मित्र के साथ भावनात्मक जुड़ाव, उसे लेकर शंका-अशंकाओं के ज्वर-भाटे, उल्लास और अवसाद के क्षण की उसकी कहानी के कथानक हैं। महानगर में आ गयी साहसी युवती अपना जीवन अपनी तरह जीना चाहती है। वह अपनी तरह संघर्ष करते युवा मित्रों के साथ फ्लैट शेयर करके रह रही है। यहाँ उसकी अपनी मित्रताएँ, अनुराग और विरक्तियाँ हैं, छोटे-छोटे भावनात्मक उतार चढ़ाव और वह जीवन है जिसे आज की भाषा में लिविंग-इन कहते हैं।
बाहरी दुनिया से लेकर अपने भीतर स्त्री और मित्र होने की सुरक्षा-असुरक्षाओं के बीच साहस और संकल्प बटोरती ये कहानियाँ नयी स्त्री की हमारे सामने कलात्मक और निजी मुहावरों की बेबाक गवाहियाँ है। यह लड़की नये एडवेंचरों और पुराने संस्कारों के तनावों में प्यार और मित्रता की परिभाषा को बदलते देखती है-ये फुरसती प्यार की नहीं, जीवन से लड़ते हुए सहयोग प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या और सपनों की रोमांचक यात्राएँ हैं। यहाँ अपनी नियति पर रोती-बिसूरती भारतीय स्त्री कहीं नहीं है। आर्थिक, भावानात्मक, सामाजिक और नैतिक स्तरों पर संघर्ष करती ऐसी ‘नायिका’ है-जिसे जीवन अपनी तरह और अपनी शर्तों पर जीना है-सारी बाधाओं, अवरोधी और हरियालियों के बीच... और यही कविता अपनी समकालीन के बीच एकदम अलग है। उसकी कहानियों को पढ़ना ‘नयी लड़की’ का जानना है। शायद यहीं से यह सूक्ति आयी है कि ‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’; जो बेहद निजी है वही तो राजनैतिक है।
कविता की अपनी एक अलग दुनिया है और वह बहुत कम उससे बाहर जाती है (सिर्फ वापस लौट आने के लिए), मगर इस दुनिया के पात्रों को वह भरपूर शिद्दत से जी रही होती है- पुरुष मित्र के साथ भावनात्मक जुड़ाव, उसे लेकर शंका-अशंकाओं के ज्वर-भाटे, उल्लास और अवसाद के क्षण की उसकी कहानी के कथानक हैं। महानगर में आ गयी साहसी युवती अपना जीवन अपनी तरह जीना चाहती है। वह अपनी तरह संघर्ष करते युवा मित्रों के साथ फ्लैट शेयर करके रह रही है। यहाँ उसकी अपनी मित्रताएँ, अनुराग और विरक्तियाँ हैं, छोटे-छोटे भावनात्मक उतार चढ़ाव और वह जीवन है जिसे आज की भाषा में लिविंग-इन कहते हैं।
बाहरी दुनिया से लेकर अपने भीतर स्त्री और मित्र होने की सुरक्षा-असुरक्षाओं के बीच साहस और संकल्प बटोरती ये कहानियाँ नयी स्त्री की हमारे सामने कलात्मक और निजी मुहावरों की बेबाक गवाहियाँ है। यह लड़की नये एडवेंचरों और पुराने संस्कारों के तनावों में प्यार और मित्रता की परिभाषा को बदलते देखती है-ये फुरसती प्यार की नहीं, जीवन से लड़ते हुए सहयोग प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या और सपनों की रोमांचक यात्राएँ हैं। यहाँ अपनी नियति पर रोती-बिसूरती भारतीय स्त्री कहीं नहीं है। आर्थिक, भावानात्मक, सामाजिक और नैतिक स्तरों पर संघर्ष करती ऐसी ‘नायिका’ है-जिसे जीवन अपनी तरह और अपनी शर्तों पर जीना है-सारी बाधाओं, अवरोधी और हरियालियों के बीच... और यही कविता अपनी समकालीन के बीच एकदम अलग है। उसकी कहानियों को पढ़ना ‘नयी लड़की’ का जानना है। शायद यहीं से यह सूक्ति आयी है कि ‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’; जो बेहद निजी है वही तो राजनैतिक है।
-राजेन्द्र यादव
एक आग
जो निरन्तर जलती है मेरे भीतर
जो चाहती है कि धधक उटे
भले ही यह जिस्म
पर वह इससे चीरकर बाहर आये
वह सिर्फ मेरी नहीं है....
मेरे सपने सिरर्फ मेरे नहीं हैं
इनमें कुछ अपूरित स्वप्न भी शामिल हैं...
पापा, बेबी दी और शेखर भैया की स्मृतियों को.....
जो निरन्तर जलती है मेरे भीतर
जो चाहती है कि धधक उटे
भले ही यह जिस्म
पर वह इससे चीरकर बाहर आये
वह सिर्फ मेरी नहीं है....
मेरे सपने सिरर्फ मेरे नहीं हैं
इनमें कुछ अपूरित स्वप्न भी शामिल हैं...
पापा, बेबी दी और शेखर भैया की स्मृतियों को.....
भय
मुझे सीढ़ियों पर चढ़ते वक्त ही महसूस हुआ था, वह घर जरूर आ चुका होगा।
मुझे पता था दरवाजा तुरन्त नहीं खुलेगा। अपने भय से लड़ने की खातिर मैंने
तेज कदमों से सीढियाँ चढ़ना शुरू कीं। इतनी तेज कि अब जानवरों का तरह हाँफ
रही हूँ। बस जीभ निकालने-भर की कसर बाकी है। साँसे तो धौंकनी की तरह चल
रही हैं। उफ, इतने जोर से दरवाजा भड़भड़ाने की क्या जरूरत थी ? एक पल...दो
पल...पल बीतते जा रहे हैं। हर बीतते हुए पल के साथ लगता है, अब खड़ा नहीं
रहा जाता। अब जरूर गिर पड़ूँगी, नहीं तो फूट-फूटकर रो पड़ूँगी।
दरवाजा खुलता है। सामने वहीं खड़ा है। हमेशा की तरह अपनी भोली सूरत लिये हुए- ‘‘ओह तुम ! कितनी देर से नॉक कर रही थी ? मैं तो किचन में था। मुझे कुछ पता ही न चला। वह तो अभी इन्होंने ही सुना।’’ इशारा ठीक बगल में आकर खड़े हुए शख्स की तरफ था। ‘‘मैं तो आज जल्दी ही आ गया था। तुम भी नहीं थी कि बातें-वातें होतीं। समझ में नहीं आ रहा था, क्या करूँ, तो खाना बनाना शुरू कर दिया।’’
मैं बिना कुछ जवाब दिये बाल्कनी की तरफ चली आयी। उधर जाने के दूसरे कमरे से गुजरना पड़ता है। मैं सीधे-सीधे देखना नहीं चाहती पर नजर पड़ ही जाती है। कई बार कई दृश्यों से गुजरकर ऐसा क्यों लगता है कि पहले भी कभी ऐसा ही दृश्य देखा है कि ऐसी ही स्थितियों से भी पहले भी हम गुजरे हैं। मुसी हुई चादर, उस पर ढेर बनी पेटीकोट, ज्यों किसी ने खड़े-खड़े उसे हड़बड़ी में ही उतार दिया हो ! तकिये के बगल में खुला पड़ा बैकपिन क्या मेरा भय ही एक शक्ल लेकर सामने आ खड़ा हुआ है या कि अनहोनी की आशंका ही पूर्वानुमान बनकर पहले से मन में चकरघिन्नी-सी नाच रही थी। मैं बिना किसी अपराध के सबसे नजरें चुरा रही हूँ। कमरे से, उन दोनों से, यहाँ तक कि खुद से भी।
चुपचाप रेलिंग पकड़े खड़ी हूँ। क्या देख रही हूँ खुद को भी नहीं पता, क्या सोच रही हूँ, खुद को भी मालूम नहीं। पर पकड़ना तो पड़ेगा ही, अपने सोच का सिरा तो थामना तो पड़ेगा ही खुद को।
‘पहले किसी से इतना डर क्यों नहीं लगा ?’
‘पहले कभी ऐसी स्थिति ही नहीं आयी, इसके पहले किसी और को मैंने उसके साथ इस तरह, इतने करीब और इतने एकान्त में देखा ही नहीं।’
‘.....और दावा करती रही, तुममें जलन या ईर्ष्या है ही नहीं। कि तुम बहुत लिबरल हो। अब कहाँ गया वह दम्ब ? इस बित्ते-भर की लड़की में ऐसा क्या है जो तुम इससे डरने लगी ?’
‘इसमें...इसमें हर पल मुझे एक ज़िद दिख पड़ती है; नादान और अल्हड़ जिद....जीतने की जिद ! सब कुछ एक बार में ही पा लेने की इच्छा ! कुछ भी, कुछ भी तो खास नहीं है, न नैन, न नक्श, न रंग-रूप ! पर फिर भी कुछ है ऐसा जो देखने वाले को ही एक ही नज़र में बाँध ले। ऐसी चंचल अल्हड़ता जो अपनी ओर बरबस खींचे। अब तक जो भी लड़कियाँ सुधीर के आसपास थीं, कई तो उसे रक्षाबंधन पर राखी भी बाँधती थीं। चाहे जो कुछ कह लो कह लो रिश्तों के बन्धन हमें बाँध रखने और और ढाढ़स देने में मदद करते ही हैं।’
घण्टों से आइना मेरे सामने ही पड़ा है। अपना ही चेहरा आज इतना अनपहचाना क्यों लग रहा है ? आँखों के नीचे उग आये ये साँवले स्याह मेरे उम्र ने दिये या रात-अधरात तक किताबों के संग-साथ ने ? बदन दुहरा और भर्राया-सा। मोटापे ने नैन-नक्श की तीक्ष्णता और उसकी धार को ही भोथरा कर डाला है। पता नहीं कितने दिन हुए, ध्यान से अपना चेहरा मैंने आईने में नहीं देखा। यह गोल-गोल घड़ेनुमा चीज मैं ही हूँ क्या ? मुझे देखकर तो सब यही कहते थे, ‘इसके बदन पर कभी माँस नहीं चढ़नेवाला !’ आईने के सामने से हटाते हुए मैं अपनी आँख के आँसुओं को बरजाती-झिड़कती हूँ.....इतनी बुरी भी नहीं मैं, क्यों रह-रहकर खुद को ‘अण्डर इस्टीमेट’ करती रहती हूँ ? कोई स्कूल-कॉलेज जानेवाली छोकरी तो रही नहीं ! अब भी थोड़ा गोश्त न चढ़े शरीर पर तो फिर कब ? दूसरे से अपनी क्या तुलना ? यूँ ही वह उम्र के जिस मोड़ से गुजर रही है उसमें तो गधियाँ भी परी दिखती हैं। धन-वैभव के बीच पले बचपन के बाद आयी जवानी। ऐसी दिख ही लिया तो कौन-सला तीर मार लिया ! पल-पल झोलती जिन्दगी की आग को, अभावों की आँच को सहते-सहते आयी होती जवानी, तब देखती इसका चेहरा। फिर किस बात पर इसे इतना घमण्ड है ? हर पल, हर क्षण मुझे क्यों चिढ़ाती, नीचा दिखाती रहती हैं ?
मैं चुपचाप अपनी बगल में आकर खड़े होकर एकटक सड़क को निहारने वाले शख्स को देखती हूँ....‘यही कहता रहता है, बच्ची है, तुम्हारे यहाँ आयी हुई है, उसकी बातों का क्या लेना....वह जानबूझकर कमेण्ट नहीं करती होगी ! वह समझ ही नहीं पाती कि वह क्या बोल रही है, दिमाग जो नहीं है। पागल.....उसकी और तुम्हारी क्या तुलना !’
कैसे चुपचाप आकर खड़ा है, ऐसे तो कितना चख-चख करता रहता है....पर आया भी तचो यही। महारानीजी पती नहीं कहाँ डोल रही हैं। ऐसे तो चाहे ऑफिस से थके-माँदे आओ।, चाहे सिर दर्द हो, कुछ नहीं समझेंगी बस दीदी-दीदी करके जान खाये रहेंगी। पर अभी...अभी..... शायद सामना करने की हिम्मत ही न हो।
मुझे इसी से बात करनी चाहिए, खूब खुलकर। यही तो है जिसके पीछे सब कुछ छोड़कर चुपचाप चली आयी थी। क्या कहूँ इससे ? कहूँ कि मैं तुम पर शक करती हूँ ? नहीं, यह कि मुझे तुम्हारा उसके साथ यूँ घुल-मिलकर रहना पसन्द नहीं ? तुम जहाँ भी रहो एकान्त में उसका पहुँच जाना, तुम दोनों का देर तक बातें करते रहना, लूडो-कैरम खेलना, टीवी देखना, बच्चों की तरह लड़ना-झगड़ना, कुछ-भी, कुछ-भी मुझे फूटी आँखों पसन्द नहीं।
सुबह कई बार ऑफिस जाने की हड़बड़ी में तुम मेरे छोटे-छोटे कामों, मसलन दूधवाले से दूध लेने, बालकानी से अखबार उठाकर लाने या किचन की छोटी-मोटी जरूरतों में हाथ बँटाने से साफ इनकार कर देते हो, पर उससे बातचीत करने का वक्त तो निकल ही आता है। वह पहुँच ही जाती है, कपड़े प्रेस करते वक्त, अखबार पढ़ते या दाढ़ी बनाते वक्त तुमसे बतियाने। और तिस पर मैं अगर किसी काम से उधर आ निकली तो एकदम तुम दोनों इस तरह चुप हो जाते हो, मानों अब तक यूँ ही चुपचाप बैठे हुए थे, जैसे कि तुम दोनों के बीच कोई अबोला ठना हो।
वही चुप्पी पसरी होती है फिर स्कूटर-रिक्शा में हमारे बीच....‘‘कुछ बोलती क्यों नहीं ?’’
‘‘हुँह !’’
‘‘बोलो भई, क्या हुआ ?’’
‘‘क्या बोलूँ ?’’
‘‘पहले क्या बोलती थी, क्या मुझसे करने के लिए अब कोई बात नहीं रह गयी है। तुम्हारे पास ?’’
‘‘बातें तो तुम्हारें पास नहीं हैं, पहले ही उनका कोटा खत्म हो चुका होता है फिर खानापूरी के लिए झूठ-मूठ मुझ ही से सवाल शुरू कर देते हो।’’
‘‘क्या मतलब शालू, आजकल हर वक्त इतनी उखड़ी-उखड़ी और मुझसे तनी-तनी क्यों रहती हो ?’’
‘‘तो क्या करू ? गेंद खेलूँ तुम्हारे साथ कि तुम पर पानी फेकूँ ? मुझे ये सब बाते बिल्कुल पसन्द नहीं, न ही मैं यह सब कर सकती हूँ, इस तरह के छिछोरे मजाक और ओछी हरकतें मुझे बिलकुल पसन्द नहीं।’’
‘‘तुम कहना क्या चाहती हो ? तुम्हें लगता है मुझे यह सब बहुत पसन्द है ? कोई मेरे घर आया हुआ तो क्या मैं मुँह सुजाकर एक किताब लेकर, एक कोने को पकड़ लूँ ! या फिर सिर-दर्द, पेट-दर्द बताकर बिस्तर पकड़ लिया करूँ। कई बार कहा- शालू, वह मुझे सिर्फ बच्ची के साथ जैसा ट्रीट करना चाहिए या जैसा करते हैं, मैं उससे वैसा ही व्यवहार करता हूँ। यूँ भी वह मेरी ....’’
दरवाजा खुलता है। सामने वहीं खड़ा है। हमेशा की तरह अपनी भोली सूरत लिये हुए- ‘‘ओह तुम ! कितनी देर से नॉक कर रही थी ? मैं तो किचन में था। मुझे कुछ पता ही न चला। वह तो अभी इन्होंने ही सुना।’’ इशारा ठीक बगल में आकर खड़े हुए शख्स की तरफ था। ‘‘मैं तो आज जल्दी ही आ गया था। तुम भी नहीं थी कि बातें-वातें होतीं। समझ में नहीं आ रहा था, क्या करूँ, तो खाना बनाना शुरू कर दिया।’’
मैं बिना कुछ जवाब दिये बाल्कनी की तरफ चली आयी। उधर जाने के दूसरे कमरे से गुजरना पड़ता है। मैं सीधे-सीधे देखना नहीं चाहती पर नजर पड़ ही जाती है। कई बार कई दृश्यों से गुजरकर ऐसा क्यों लगता है कि पहले भी कभी ऐसा ही दृश्य देखा है कि ऐसी ही स्थितियों से भी पहले भी हम गुजरे हैं। मुसी हुई चादर, उस पर ढेर बनी पेटीकोट, ज्यों किसी ने खड़े-खड़े उसे हड़बड़ी में ही उतार दिया हो ! तकिये के बगल में खुला पड़ा बैकपिन क्या मेरा भय ही एक शक्ल लेकर सामने आ खड़ा हुआ है या कि अनहोनी की आशंका ही पूर्वानुमान बनकर पहले से मन में चकरघिन्नी-सी नाच रही थी। मैं बिना किसी अपराध के सबसे नजरें चुरा रही हूँ। कमरे से, उन दोनों से, यहाँ तक कि खुद से भी।
चुपचाप रेलिंग पकड़े खड़ी हूँ। क्या देख रही हूँ खुद को भी नहीं पता, क्या सोच रही हूँ, खुद को भी मालूम नहीं। पर पकड़ना तो पड़ेगा ही, अपने सोच का सिरा तो थामना तो पड़ेगा ही खुद को।
‘पहले किसी से इतना डर क्यों नहीं लगा ?’
‘पहले कभी ऐसी स्थिति ही नहीं आयी, इसके पहले किसी और को मैंने उसके साथ इस तरह, इतने करीब और इतने एकान्त में देखा ही नहीं।’
‘.....और दावा करती रही, तुममें जलन या ईर्ष्या है ही नहीं। कि तुम बहुत लिबरल हो। अब कहाँ गया वह दम्ब ? इस बित्ते-भर की लड़की में ऐसा क्या है जो तुम इससे डरने लगी ?’
‘इसमें...इसमें हर पल मुझे एक ज़िद दिख पड़ती है; नादान और अल्हड़ जिद....जीतने की जिद ! सब कुछ एक बार में ही पा लेने की इच्छा ! कुछ भी, कुछ भी तो खास नहीं है, न नैन, न नक्श, न रंग-रूप ! पर फिर भी कुछ है ऐसा जो देखने वाले को ही एक ही नज़र में बाँध ले। ऐसी चंचल अल्हड़ता जो अपनी ओर बरबस खींचे। अब तक जो भी लड़कियाँ सुधीर के आसपास थीं, कई तो उसे रक्षाबंधन पर राखी भी बाँधती थीं। चाहे जो कुछ कह लो कह लो रिश्तों के बन्धन हमें बाँध रखने और और ढाढ़स देने में मदद करते ही हैं।’
घण्टों से आइना मेरे सामने ही पड़ा है। अपना ही चेहरा आज इतना अनपहचाना क्यों लग रहा है ? आँखों के नीचे उग आये ये साँवले स्याह मेरे उम्र ने दिये या रात-अधरात तक किताबों के संग-साथ ने ? बदन दुहरा और भर्राया-सा। मोटापे ने नैन-नक्श की तीक्ष्णता और उसकी धार को ही भोथरा कर डाला है। पता नहीं कितने दिन हुए, ध्यान से अपना चेहरा मैंने आईने में नहीं देखा। यह गोल-गोल घड़ेनुमा चीज मैं ही हूँ क्या ? मुझे देखकर तो सब यही कहते थे, ‘इसके बदन पर कभी माँस नहीं चढ़नेवाला !’ आईने के सामने से हटाते हुए मैं अपनी आँख के आँसुओं को बरजाती-झिड़कती हूँ.....इतनी बुरी भी नहीं मैं, क्यों रह-रहकर खुद को ‘अण्डर इस्टीमेट’ करती रहती हूँ ? कोई स्कूल-कॉलेज जानेवाली छोकरी तो रही नहीं ! अब भी थोड़ा गोश्त न चढ़े शरीर पर तो फिर कब ? दूसरे से अपनी क्या तुलना ? यूँ ही वह उम्र के जिस मोड़ से गुजर रही है उसमें तो गधियाँ भी परी दिखती हैं। धन-वैभव के बीच पले बचपन के बाद आयी जवानी। ऐसी दिख ही लिया तो कौन-सला तीर मार लिया ! पल-पल झोलती जिन्दगी की आग को, अभावों की आँच को सहते-सहते आयी होती जवानी, तब देखती इसका चेहरा। फिर किस बात पर इसे इतना घमण्ड है ? हर पल, हर क्षण मुझे क्यों चिढ़ाती, नीचा दिखाती रहती हैं ?
मैं चुपचाप अपनी बगल में आकर खड़े होकर एकटक सड़क को निहारने वाले शख्स को देखती हूँ....‘यही कहता रहता है, बच्ची है, तुम्हारे यहाँ आयी हुई है, उसकी बातों का क्या लेना....वह जानबूझकर कमेण्ट नहीं करती होगी ! वह समझ ही नहीं पाती कि वह क्या बोल रही है, दिमाग जो नहीं है। पागल.....उसकी और तुम्हारी क्या तुलना !’
कैसे चुपचाप आकर खड़ा है, ऐसे तो कितना चख-चख करता रहता है....पर आया भी तचो यही। महारानीजी पती नहीं कहाँ डोल रही हैं। ऐसे तो चाहे ऑफिस से थके-माँदे आओ।, चाहे सिर दर्द हो, कुछ नहीं समझेंगी बस दीदी-दीदी करके जान खाये रहेंगी। पर अभी...अभी..... शायद सामना करने की हिम्मत ही न हो।
मुझे इसी से बात करनी चाहिए, खूब खुलकर। यही तो है जिसके पीछे सब कुछ छोड़कर चुपचाप चली आयी थी। क्या कहूँ इससे ? कहूँ कि मैं तुम पर शक करती हूँ ? नहीं, यह कि मुझे तुम्हारा उसके साथ यूँ घुल-मिलकर रहना पसन्द नहीं ? तुम जहाँ भी रहो एकान्त में उसका पहुँच जाना, तुम दोनों का देर तक बातें करते रहना, लूडो-कैरम खेलना, टीवी देखना, बच्चों की तरह लड़ना-झगड़ना, कुछ-भी, कुछ-भी मुझे फूटी आँखों पसन्द नहीं।
सुबह कई बार ऑफिस जाने की हड़बड़ी में तुम मेरे छोटे-छोटे कामों, मसलन दूधवाले से दूध लेने, बालकानी से अखबार उठाकर लाने या किचन की छोटी-मोटी जरूरतों में हाथ बँटाने से साफ इनकार कर देते हो, पर उससे बातचीत करने का वक्त तो निकल ही आता है। वह पहुँच ही जाती है, कपड़े प्रेस करते वक्त, अखबार पढ़ते या दाढ़ी बनाते वक्त तुमसे बतियाने। और तिस पर मैं अगर किसी काम से उधर आ निकली तो एकदम तुम दोनों इस तरह चुप हो जाते हो, मानों अब तक यूँ ही चुपचाप बैठे हुए थे, जैसे कि तुम दोनों के बीच कोई अबोला ठना हो।
वही चुप्पी पसरी होती है फिर स्कूटर-रिक्शा में हमारे बीच....‘‘कुछ बोलती क्यों नहीं ?’’
‘‘हुँह !’’
‘‘बोलो भई, क्या हुआ ?’’
‘‘क्या बोलूँ ?’’
‘‘पहले क्या बोलती थी, क्या मुझसे करने के लिए अब कोई बात नहीं रह गयी है। तुम्हारे पास ?’’
‘‘बातें तो तुम्हारें पास नहीं हैं, पहले ही उनका कोटा खत्म हो चुका होता है फिर खानापूरी के लिए झूठ-मूठ मुझ ही से सवाल शुरू कर देते हो।’’
‘‘क्या मतलब शालू, आजकल हर वक्त इतनी उखड़ी-उखड़ी और मुझसे तनी-तनी क्यों रहती हो ?’’
‘‘तो क्या करू ? गेंद खेलूँ तुम्हारे साथ कि तुम पर पानी फेकूँ ? मुझे ये सब बाते बिल्कुल पसन्द नहीं, न ही मैं यह सब कर सकती हूँ, इस तरह के छिछोरे मजाक और ओछी हरकतें मुझे बिलकुल पसन्द नहीं।’’
‘‘तुम कहना क्या चाहती हो ? तुम्हें लगता है मुझे यह सब बहुत पसन्द है ? कोई मेरे घर आया हुआ तो क्या मैं मुँह सुजाकर एक किताब लेकर, एक कोने को पकड़ लूँ ! या फिर सिर-दर्द, पेट-दर्द बताकर बिस्तर पकड़ लिया करूँ। कई बार कहा- शालू, वह मुझे सिर्फ बच्ची के साथ जैसा ट्रीट करना चाहिए या जैसा करते हैं, मैं उससे वैसा ही व्यवहार करता हूँ। यूँ भी वह मेरी ....’’
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